ज्ञात हो कि निर्भया कांड के बाद बार-बार महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा और अपराध के मुद्दे ने आक्रोश पैदा किया है, लेकिन अक्सर देखा जाता है कि समाज के प्रभुत्वशाली हिस्सों के साथ राजनीतिक ढांचे की मिलीभगत से शोषित-उत्पीड़ित और हाशिए के समुदायों की आवाज को बार-बार दबा दिया जाता है। पिछले कुछ वर्षों में, देश भर में बलात्कार और हत्या के मामले और 2020 के हालिया हाथरस मामले ने देश में महिलाओं की सुरक्षा के साथ-साथ महिलाओं के खिलाफ हिंसा, असमानता, उत्पीड़न और शोषण की मौजूदा व्यवस्था पर सवाल खड़े किए हैं।
सीएसडब्लू से मांडवी ने कहा, "महिलाएं आज न तो घर में सुरक्षित हैं और न ही सड़कों पर। महिलाएँ या तो खुद अपनी स्वतंत्रता को कम करने के लिए मजबूर होती हैं या उनके परिवार सुरक्षा के नाम पर इसे कम कर देते हैं। यही वह व्यवस्था है जिसे समाज के प्रभुत्वशाली हिस्सों द्वारा पोसा जाता है और शासक राजनेताओं द्वारा संरक्षित किया जाता है, और जिससे आम महिलाओं की असुरक्षा की स्थिति लगातार बनी हुई है।"
वे आगे कहती है, "दिल्ली पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक, पिछले साल 2021 की तुलना में 2022 के पहले साढ़े छह महीनों में राष्ट्रीय राजधानी में महिलाओं के खिलाफ अपराधों की संख्या में 17% की वृद्धि हुई है। हर दिन औसतन छह बलात्कार की घटनाएँ हुई हैं। अगर, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ अपराधों की संख्या इतनी ज्यादा है, तो देश के बाकी हिस्सों में महिलाओं के लिए सुरक्षा की कमी की स्थिति इससे कहीं ज्यादा खराब है। 2018 के NFHS सर्वेक्षण में हिंसा पीड़िताओं में से केवल 3.5% ने कहा कि उन्होंने सहायता के लिए पुलिस को फोन किया था। NCRB के 2020 के आंकड़े बताते हैं कि देश में हर दिन लगभग 10 दलित महिलाओं के साथ बलात्कार होता है। यह हाशिए के समुदायों की महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामलों की कम रिपोर्टिंग की स्थिति को उजागर करता है, और इस बेहद खराब स्थिति को राजनीतिक ढांचे और समाज के प्रभुत्वशाली हिस्सों द्वारा और भी ज्यादा मजबूत किया जाता है। हाथरस और बलरामपुर बलात्कार कांड में सत्ताधारी पार्टी और दबंग जातियों के गठजोड़ का ही नतीजा था कि पुलिस ने पीड़िताओं के शवों का जबरन अंतिम संस्कार कर दिया। इसके अलावा, 2002 के बिलकिस बानो गैंगरेप मामले के दोषियों को समय से पहले रिहा करने के हाल के फैसले ने स्पष्ट रूप से प्रमुख जातियों और समुदायों के दोषियों को मिलने वाले राजनीतिक संरक्षण को उजागर किया है। गोधरा गैंगरेप और सामूहिक हत्याकांड में उम्रकैद की सजा काट रहे 11 दोषियों को इस साल 15 अगस्त को रिहा कर दिया गया था। यह एक क्रूर विडंबना के अलावा और कुछ नहीं है कि जिस दिन हम आजादी का जश्न मना रहे थे, महिलाओं के खिलाफ हिंसा और सांप्रदायिक हिंसा के अपराधियों को सज़ा से मुक्ति दे दी गयी।
अपराधियों, राजनीतिक ढांचे, पुलिस और कानून प्रवर्तन एजेंसियों के बीच गठजोड़ ने अपराधियों के लिए दंड के भय से मुक्ति का माहौल बनाया है और महिलाओं के लिए असुरक्षा पैदा की है। दंड से भय-मुक्ति ने अपराधियों के बीच इस मानसिकता को बढ़ाया है कि वे किसी भी अपराध से बच सकते हैं, और यदि वे प्रभुत्वशाली जातियों और समुदायों के हैं तो राजनीतिक सत्तापक्ष उसके साथ खड़ा होगा। यही नहीं, सजा की कम दर और धीमी कानूनी व्यवस्था महिलाओं के लिए न्याय पाना और भी चुनौतीपूर्ण बना देते हैं। एक दशक हो गया है जब सरकार ने निर्भया फंड और वन-स्टॉप क्राइसिस सेंटरों के साथ महिला सुरक्षा की महत्वाकांक्षी योजना की घोषणा की थी ताकि पीड़िताओं की मदद की जा सके। विडम्बना यह है कि निर्भया कांड के 10 साल पूरे होने से कुछ दिन पहले ही यह उजागर हुआ है कि महाराष्ट्र में निर्भया फंड से खरीदे गए वाहनों का इस्तेमाल सत्ताधारी राजनीतिक दल के विधायकों की सुरक्षा के लिए किया जा रहा है। वन-स्टॉप क्राइसिस सेंटरों में फंड, प्रशिक्षण और बुनियादी ढांचे की कमी के बारे में वार्षिक समाचार रिपोर्टें सामने आती हैं, जिससे महिला सशक्तिकरण का ढोंग करने वाले राजनीतिक ढांचे और कानून प्रवर्तन संस्थानों की विश्वसनीयता पर सवाल उठता है।"
सीएसडब्ल्यू ने प्रगतिशील महिला आन्दोलन की महत्वपूर्ण मांगों वाले महिला मांगपत्रक आंदोलन की भी आज शुरुआत की। मांगपत्र में कुछ महत्वपूर्ण मांगों में- महिलाओं के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और सभी के लिए रोजगार, समान काम का समान दाम, काम के जगहों में जरूरी सुविधाओं जैसे परिवहन और शिशुगृह, कम करने वाली महिलाओं के लिए शहर में अधिक होस्टल्स, शहरों में मकान किराया के उच्चतम सीमा तय करने का क़ानून, पाइप द्वारा हर घर में साफ़ पानी, जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफारिशों के तहत अफ्स्पा को वापस लेने, पति द्वारा पत्नी के साथ जबरदस्ती शारीरिक संबंध को आपराधिक घोषित करने, महिलाओं और बच्चियों के खरीद-बिक्री पर तुरंत रोक लगाने के लिए उचित कदम उठाये जाने को लेकर, पुलिस थानों में पुलिस कि असंवेदनशीलता एवं एफआईआर दर्ज करने से मना करने वालों पर उचित कदम उठाने के लिए सीसीटीवी कैमरा लगाने की, शामिल हैं।
वे आगे कहती है, "दिल्ली पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक, पिछले साल 2021 की तुलना में 2022 के पहले साढ़े छह महीनों में राष्ट्रीय राजधानी में महिलाओं के खिलाफ अपराधों की संख्या में 17% की वृद्धि हुई है। हर दिन औसतन छह बलात्कार की घटनाएँ हुई हैं। अगर, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ अपराधों की संख्या इतनी ज्यादा है, तो देश के बाकी हिस्सों में महिलाओं के लिए सुरक्षा की कमी की स्थिति इससे कहीं ज्यादा खराब है। 2018 के NFHS सर्वेक्षण में हिंसा पीड़िताओं में से केवल 3.5% ने कहा कि उन्होंने सहायता के लिए पुलिस को फोन किया था। NCRB के 2020 के आंकड़े बताते हैं कि देश में हर दिन लगभग 10 दलित महिलाओं के साथ बलात्कार होता है। यह हाशिए के समुदायों की महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामलों की कम रिपोर्टिंग की स्थिति को उजागर करता है, और इस बेहद खराब स्थिति को राजनीतिक ढांचे और समाज के प्रभुत्वशाली हिस्सों द्वारा और भी ज्यादा मजबूत किया जाता है। हाथरस और बलरामपुर बलात्कार कांड में सत्ताधारी पार्टी और दबंग जातियों के गठजोड़ का ही नतीजा था कि पुलिस ने पीड़िताओं के शवों का जबरन अंतिम संस्कार कर दिया। इसके अलावा, 2002 के बिलकिस बानो गैंगरेप मामले के दोषियों को समय से पहले रिहा करने के हाल के फैसले ने स्पष्ट रूप से प्रमुख जातियों और समुदायों के दोषियों को मिलने वाले राजनीतिक संरक्षण को उजागर किया है। गोधरा गैंगरेप और सामूहिक हत्याकांड में उम्रकैद की सजा काट रहे 11 दोषियों को इस साल 15 अगस्त को रिहा कर दिया गया था। यह एक क्रूर विडंबना के अलावा और कुछ नहीं है कि जिस दिन हम आजादी का जश्न मना रहे थे, महिलाओं के खिलाफ हिंसा और सांप्रदायिक हिंसा के अपराधियों को सज़ा से मुक्ति दे दी गयी।
अपराधियों, राजनीतिक ढांचे, पुलिस और कानून प्रवर्तन एजेंसियों के बीच गठजोड़ ने अपराधियों के लिए दंड के भय से मुक्ति का माहौल बनाया है और महिलाओं के लिए असुरक्षा पैदा की है। दंड से भय-मुक्ति ने अपराधियों के बीच इस मानसिकता को बढ़ाया है कि वे किसी भी अपराध से बच सकते हैं, और यदि वे प्रभुत्वशाली जातियों और समुदायों के हैं तो राजनीतिक सत्तापक्ष उसके साथ खड़ा होगा। यही नहीं, सजा की कम दर और धीमी कानूनी व्यवस्था महिलाओं के लिए न्याय पाना और भी चुनौतीपूर्ण बना देते हैं। एक दशक हो गया है जब सरकार ने निर्भया फंड और वन-स्टॉप क्राइसिस सेंटरों के साथ महिला सुरक्षा की महत्वाकांक्षी योजना की घोषणा की थी ताकि पीड़िताओं की मदद की जा सके। विडम्बना यह है कि निर्भया कांड के 10 साल पूरे होने से कुछ दिन पहले ही यह उजागर हुआ है कि महाराष्ट्र में निर्भया फंड से खरीदे गए वाहनों का इस्तेमाल सत्ताधारी राजनीतिक दल के विधायकों की सुरक्षा के लिए किया जा रहा है। वन-स्टॉप क्राइसिस सेंटरों में फंड, प्रशिक्षण और बुनियादी ढांचे की कमी के बारे में वार्षिक समाचार रिपोर्टें सामने आती हैं, जिससे महिला सशक्तिकरण का ढोंग करने वाले राजनीतिक ढांचे और कानून प्रवर्तन संस्थानों की विश्वसनीयता पर सवाल उठता है।"
सीएसडब्ल्यू ने प्रगतिशील महिला आन्दोलन की महत्वपूर्ण मांगों वाले महिला मांगपत्रक आंदोलन की भी आज शुरुआत की। मांगपत्र में कुछ महत्वपूर्ण मांगों में- महिलाओं के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और सभी के लिए रोजगार, समान काम का समान दाम, काम के जगहों में जरूरी सुविधाओं जैसे परिवहन और शिशुगृह, कम करने वाली महिलाओं के लिए शहर में अधिक होस्टल्स, शहरों में मकान किराया के उच्चतम सीमा तय करने का क़ानून, पाइप द्वारा हर घर में साफ़ पानी, जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफारिशों के तहत अफ्स्पा को वापस लेने, पति द्वारा पत्नी के साथ जबरदस्ती शारीरिक संबंध को आपराधिक घोषित करने, महिलाओं और बच्चियों के खरीद-बिक्री पर तुरंत रोक लगाने के लिए उचित कदम उठाये जाने को लेकर, पुलिस थानों में पुलिस कि असंवेदनशीलता एवं एफआईआर दर्ज करने से मना करने वालों पर उचित कदम उठाने के लिए सीसीटीवी कैमरा लगाने की, शामिल हैं।