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Dr. Maya John | Photo from The New Learn |
गरीबों में ऐसे कई लोग हैं, जो विभिन्न बीमारियों से जूझ रहे हैं, लेकिन लॉक-डाउन के कारण सार्वजनिक अस्पतालों तक उनकी पहुंच बहुत कम है। सार्वजनिक अस्पतालों में केवल आपातकालीन मामलों को छोड़कर ओपीडी सेवाओं जैसे नियमित कामकाज बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। ऐसे में, हम सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं तक सीमित पहुंच रखने वाले लोगों के बड़े हिस्से में पहले से मौजूद खराब स्वास्थ्य समस्याओं में बढ़ोत्तरी की उम्मीद कर सकते हैं। हमारे देश में ‘रोग निगरानी व्यवस्था’ में व्याप्त लापरवाही के कारण बहुसंख्यक स्वास्थ्य समस्याओं की चिह्नित रोग के तौर पर पहचान भी नहीं हो पाती। एक तो, संक्रमित गरीब व पिछड़ी आबादी के एक बड़े हिस्से की स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच नहीं है, इसलिए वो प्रमाणित डॉक्टर के पास इलाज के लिए पहुंच ही नहीं पाते। दूसरे, जब संक्रमित व्यक्ति डॉक्टरों/अस्पतालों में जांच के लिए पहुंचते भी हैं, तब भी रोग के इलाज के लिए (रक्त/सीरम, कंठ फाहा, बलगम, मल, मूत्र, आदि का) आवश्यक परीक्षण नहीं होता। तीसरे, अगर इन मामलों की जांच होती भी है, तब भी पैथोलॉजी प्रयोगशालाओं में पहले से चल रहे रूढ़ वर्गीकृत मानकों का ही सहारा लेने की प्रवृत्ति हावी है। इसके परिणामस्वरूप समूहों, उपसमूहों, उपभेदों आदि में भिन्नता के आधार पर रोगजनकों (रोग पैदा करने वाले सूक्ष्मजीव) को विभेदित और अलग करके एक बीमारी के विशिष्ट कारण के तौर पर पहचान करने में विफलता ही हाथ लगती है।
इसके परिणामस्वरूप व्यापक रूप से अनेक बीमारियों के कारणों की पहचान भी नहीं हो पाती है। कई बीमारियों को उनके लक्षणों के आधार पर एक साथ जोड़कर ‘रेस्पिरेटरी ट्रैक्ट इन्फेक्शन’, ‘यूरिनरी ट्रैक्ट इन्फेक्शन’, ‘एक्यूट अनिडफरेंशिएटेड फीवर’, ‘एक्यूट फिब्राइल इलनेस’, ‘फीवर ऑफ अननोन ओरिजिन’ जैसे सामान्य जातीय नाम दे दिए जाते हैं। इन अविभेदित बीमारियों से हमारे देश में हर साल लाखों लोग प्रभावित होते हैं। इसका सबसे ज्यादा असर गरीब लोगों में देखने को मिलता है, जो पहले से ही कमजोर रोग-प्रतिरोधक क्षमता से पीड़ित हैं और स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच से दूर हैं। इनसे होने वाली असंख्य मौतें और बेहिसाब पीड़ा इन अघोषित मूक महामारियों की निरंतर व्यापकता को दर्शाती हैं। अगर किसी बीमारी के विशिष्ट कारण की पहचान हो भी जाती है, तो यह जरूरी नहीं कि उस पर पर्याप्त वैज्ञानिक अनुसंधान हो। हम देखते हैं कि बीमारियों के रोगजनकों में निरंतर विभेदीकरण होता है, पर ‘कम महत्त्वपूर्ण’ माने जाने के कारण उसी रफ्तार से उन बीमारियों पर जरूरी वैज्ञानिक अनुसंधान नहीं हो पाता है। परिणामस्वरूप रोगजनकों के बारे में जानकारी और आवश्यक रोग नियंत्रण पिछड़ जाता है। हालांकि एक संक्रामक बीमारी की पहचान और उसके उपचार को अगर अच्छी तरह से जान भी लिया जाता है, तब भी यह जरूरी नहीं है कि बीमारी का व्यापक आबादी में फैलाव होने के बावजूद उसपर पर्याप्त ध्यान दिया जाए। टीबी इसका उपयुक्त उदाहरण है। सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार, हर दस सेकेंड में एक व्यक्ति टीबी से संक्रमित होता है, और भारत में 1400 लोग हर दिन इस बीमारी से मारे जाते हैं।
यहां पर यह इंगित करना महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि टीबी और कई अन्य संक्रामक रोगों को ‘साधारण’ मानकर अनदेखा किया जाता रहा है, और इसके विपरीत कुछ बीमारियों को सहज ही अधिक महत्त्वपूर्ण मानकर महामारी के रूप में पहचान लिया जाता है। ज्यादातर मामलों में, ऐसी बीमारियों को तभी एक महामारी के रूप में चिह्नित किया जाता है, जब समाज के संभ्रांत तबके या इलाके को इनकी चपेट में आने का खतरा होता है। यह एक संयोग नहीं है कि ज्यादातर गरीबों को होने वाली टीबी जैसी बीमारी को अपेक्षाकृत कम करके आंका जाता है। अन्य मूक महामारियों की मृत्यु दर का तुलनात्मक रूप से अधिक होना अपने आप में चिंताजनक है। महत्त्वपूर्ण तौर पर कोविड-19 के साथ मिलकर यह मौजूदा बीमारियां विनाशकारी परिणाम पैदा करने की क्षमता रखती हैं। ऐसे में इनकी पहचान करना और इन पर तत्काल ध्यान देना अनिवार्य हो जाता है।